कुछ इल्म की बात करते हैं,
एक इंद्रजाल की बुनाई करते हैं।
दूर इस शहर की दौड़ धूप से,
कुछ लोगों की बात करते हैं।
..
जिनसे ना मेरा कोई नाता है,
और शायद न ही तुम्हारा।
पर वे जितने तुम्हें अपने से लगते हैं,
शायद उसे ज़्यादा नहीं
तो कुछ कम भी नहीं,
वे मेरे भी उतने ही अपने हैं!
..
जिनके होने का एहसास तुम्हें भी है,
और शायद मुझे भी है,
एक चिट्ठी आई है,
उन अपनों के गाँव से।
..
आओ, तुम्हें सुनाता हूं-:
..
~~
वैसे तो कोई खास बात नहीं है,
बस यूं ही यह चिट्ठी लिख रहा हूं,
महामारी के चलते इस दौर में,
इंसानों के बीच किसी अपने को ढूंढ रहा हूं।
..
चला गया था कुछ दूर मुझसे ,
यह बात कुछ साल पुरानी है।
शहर की इस दौड़ धूप के बीच
मैंने भी अपनी एक शाखा गंवाई है।
..
अब खोज रहा हूं,
इस शहर की भीड़ में
अपने से अलग हुई शाखा को।
सींचा है जिसे बचपन में ,
अपने लहु और पसीने से,
अब उसी शाखा की
अपने कर्त्तव्य को पूरा करने की रात आई है।
..
क्यों जनाब, यह इतनी भी क्या रुसवाई है?
..
क्या मेरा?
कब तक मेरा?
सबकुछ तो इस गाँव में तुम्हारा ही है।
बस अब पल दो पल की सांस बाकी है,
मेरे जीवन के सार
की यह आखरी चौपाई है।
अब बस शैय्या पर कुछ दिन की चढ़ाई है,
तुम्हारी आस में यह आंखें घर की दहलीज़ पर बिछाई हैं।
देखने की बात बस इतनी सी है,
की मौत पहले आती है
या तुम!
-तुम्हारा कोई अपना।
~~
..
एक ऐसी ही चिट्ठी पिछले 15 सालों से,
मेरे घर के दरवाज़े पर हर माह आती है।
हर बार कुछ अलग शब्दों से पूर्ण,
कुछ अलग बातों के साथ!
पर एक बात इन सभी संदेशों में सामान्य थी
और वह हैं
इन संदेशों में छिपे भाव।
मैं अक्सर यह संदेश पढ़ कर
एक उत्तर भेज दिया करता था,
की अब उनका पुत्र यहां नहीं रहता।
पर इस बार मैं नहीं भेज पाया।
..
और भेजता भी कैसे?
एक यहीं आस में तो वह जी रहे हैं,
कि इस शहर के बीच,
इन ऊंची इमारतों में
एक आशियाना उनके किसी अपने का भी होगा।
जहां तक गाँव से संदेशा पहुंचने में कुछ अधिकतर समय लगता होगा!
किसी के 15 साल का वक़्त कह लो और किसी की पूरी ज़िंदगी!
पर संदेशा पहुंचता ज़रूर होगा।
शहर है, आखिर क्यों नहीं पहुंचेगा?
..
एक मरता हुआ व्यक्ति
जिसके लिए आज भी उसका कोई अपना
इस शहर की भीड़ में कहीं
एक घर बसाए बैठा है,
कुछ शहरी इंसानों के बीच
अपनों से दूर हो बैठा है।
मानो जैसे एक नादान परिंदा खुले आसमान में कहीं उड़ सा गया है!
इंसानों की इस भीड़ में किसी अपने का कुछ खो सा गया है।
एक सिरफिरा इस अनंत शून्य में कहीं लुप्त हो सा गया है।
..
न मालूम अब मुझे,
न मालूम अब तुझे
अगले माह की दूसरी तारीख़ को
कोई चिट्ठी आएगी या नहीं!
..
पर इन सब से परे कुछ अपनों की याद ज़रूर आएगी।
जिनसे ना मेरा कोई नाता है,
और शायद न ही तुम्हारा।
पर वे जितने तुम्हें अपने से लगते हैं,
शायद उसे ज़्यादा नहीं
तो कुछ कम भी नहीं,
वे मेरे भी उतने ही अपने हैं!
..
कुछ इल्म की बात करते है,
एक इंद्रजाल की बुनाई करते हैं,
शहर में रहकर आज हम,
शहर वालों की बात करते हैं!
- क्रेवenly kaफ़िर✍️✌️
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