सीना तान, शब्दों पर पूर्णविराम लगा
मैं उस की ओर चल दिया था।
पिछले कुछ दिनों की तरह आज भी
एक फरियाद लिए मैं बस चल दिया था।
यूँ तो राबता सुनना,
मेरे मूह से उसे भी पसंद नहीं था,
पर हैरानी इस बात की थी,
मऱहम का निवास भी उसी में था।
ख्यालों में अक्सर यह बात कईं खलती थी,
ऐसा भी किस्मत में खोट क्या है-
"कि यह मन खफा भी उनसे ही होता है
और मऱहम भी उनमें ही बसता है?"
डर का पहरा भी था
और मिलने की खुशी भी।
किसे मालूम था :
यह मऱहम खोजते हुए रुहानियत से मुलाकात होगी।
कितनी शिद्दतों के बाद यह रुहानियत
आज इनायत में तबदील हो गई!
मानों जैसे मेरी हस्ती ही
मुझसे रूबरू हो गई।
किसे मालूम था यह इनायत इतनी हसीन होगी?
कि मेरे सिफर के दरगह में भी
अब तेरी ही काया होगी।
यूँ ही किसी दिन,
इन शब्दों में نور बनकर तू बस जाएगी,
एक सुरख की चादर ओढ़ कर,
फिर से तू ख्यालों में छा जाएगी।
इन सब रंजिशों का हिसाब लेने,
मैं फिर उस की ओर चल दिया था,
जिसने कभी बात करना तो दूर,
मेरे होने पर भी सवाल मुझसे कर दिया था।
- EtchedMirage writes✍
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