बाँध अपने बस्ते को मैं,
चल पड़ा एक अनजान राह ।
कुरेदने उन इतिहास के पन्नों को,
जहाँ गया न अभी तक कोई इनसान।
मरने को तत्पर थे ख्याल,
भरनी अभी थी ख्वाबों की उड़ान-
मिलने को बाकी थी वो पलकें उन गालों से :
सिमटी थी जिन गालों पर
आँसुओं की धार ।
कहने को दूर हुआ था मैं भी
छोड़ अपने सपनों की छाप
दूर हुए थे मुझसे कुछ अपने
आओ सुनाता हूँ एक तुम्हारे पते की बात ।
कहने को तो सब साथ है
फिर क्यों पुछता तू यह सवाल है!
"भाई एक लड़की का नंबर तो दिला?"
"मान जाएगी क्या वो इस बार?"
कहीं दूर इस सवाल से परे
उठे मेरे मन में विचार :
चल पड़ा मैं उस शहर से दूर
जहाँ उठे थे तेरे होने पर सवाल ।
मिली थी आज वो "पलकें" इन गालों से
जो ताकती थी कभी यह राह ,
पहेली तो छिपी थी उन नीली आँखों में,
बसती थी जिन आँखों में मेरी राह !
नाम में रखा है क्या साहिब,
अक्सर पूछती थी मेरी किताब ।
नाम में रखा है क्या साहिब,
अक्सर पूछती थी मेरी किताब,
एक मुसकुराहट देकर कहने लगी
छीड़ी थी जो यह अलफाज़ों की आग
नाम ही तो "नया" है
पूराने तो थे मेरे ख्याल
छूट गए थे कहीं बीच रस्ते
सिखाए थे जो शब्द अम्मीजान ने कहीं बार ।
चलना है अकेला तुझे
काफिला यूँ ही बढ़ता जाएगा
समझना है तुझे लोगों को
एक दिन यह दिल भी फिसल जाएगा ।
फुसलाना है तुझे उन लोगों को
जिनके लिए तेरा मन मचल जाएगा
पर सीखना है जीना तुझे खुद के लिए
एक दिन लौट कर तू घर आएगा ।
जिस दिन लौट कर तू घर आएगा
क्या कहानी सुनाएगा ?
मेरे सिखाए संस्कारों की
क्या तू लाज रख पाएगा ?
सोच कर इन बातों को
रुक गया था मैं उस किनारे
बहती है जिस दिशा से उल्टी गंगा
होती हुई घर को तुम्हारे ।
बीच रास्ते मैने पीछे मुड़ कर देखा
काफिला तो रंगीन था
पर मेरा दिल अभी भी लाल था
और मन में एक ही ख्याल था :
"बस कुछ दिन और ।"
और यह रंगमंच भी इन लव्ज़ों में सिमट जाएगा।
- EtchedMirage writes✍✌
चल पड़ा एक अनजान राह ।
कुरेदने उन इतिहास के पन्नों को,
जहाँ गया न अभी तक कोई इनसान।
मरने को तत्पर थे ख्याल,
भरनी अभी थी ख्वाबों की उड़ान-
मिलने को बाकी थी वो पलकें उन गालों से :
सिमटी थी जिन गालों पर
आँसुओं की धार ।
कहने को दूर हुआ था मैं भी
छोड़ अपने सपनों की छाप
दूर हुए थे मुझसे कुछ अपने
आओ सुनाता हूँ एक तुम्हारे पते की बात ।
कहने को तो सब साथ है
फिर क्यों पुछता तू यह सवाल है!
"भाई एक लड़की का नंबर तो दिला?"
"मान जाएगी क्या वो इस बार?"
कहीं दूर इस सवाल से परे
उठे मेरे मन में विचार :
चल पड़ा मैं उस शहर से दूर
जहाँ उठे थे तेरे होने पर सवाल ।
मिली थी आज वो "पलकें" इन गालों से
जो ताकती थी कभी यह राह ,
पहेली तो छिपी थी उन नीली आँखों में,
बसती थी जिन आँखों में मेरी राह !
नाम में रखा है क्या साहिब,
अक्सर पूछती थी मेरी किताब ।
नाम में रखा है क्या साहिब,
अक्सर पूछती थी मेरी किताब,
एक मुसकुराहट देकर कहने लगी
छीड़ी थी जो यह अलफाज़ों की आग
नाम ही तो "नया" है
पूराने तो थे मेरे ख्याल
छूट गए थे कहीं बीच रस्ते
सिखाए थे जो शब्द अम्मीजान ने कहीं बार ।
चलना है अकेला तुझे
काफिला यूँ ही बढ़ता जाएगा
समझना है तुझे लोगों को
एक दिन यह दिल भी फिसल जाएगा ।
फुसलाना है तुझे उन लोगों को
जिनके लिए तेरा मन मचल जाएगा
पर सीखना है जीना तुझे खुद के लिए
एक दिन लौट कर तू घर आएगा ।
जिस दिन लौट कर तू घर आएगा
क्या कहानी सुनाएगा ?
मेरे सिखाए संस्कारों की
क्या तू लाज रख पाएगा ?
सोच कर इन बातों को
रुक गया था मैं उस किनारे
बहती है जिस दिशा से उल्टी गंगा
होती हुई घर को तुम्हारे ।
बीच रास्ते मैने पीछे मुड़ कर देखा
काफिला तो रंगीन था
पर मेरा दिल अभी भी लाल था
और मन में एक ही ख्याल था :
"बस कुछ दिन और ।"
और यह रंगमंच भी इन लव्ज़ों में सिमट जाएगा।
- EtchedMirage writes✍✌
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