"काफ़ी बातों में एक कप कॉफी।" "एक डर सा है कुछ ज़्यादा सुलझने में, एक डर सा है तुम्हारी बातों में उलझने में, जो अक्सर बतियाती हैं, उसके होने की बातें, जो तुम्हारा था कभी और है नहीं, पर फिर भी ना होकर भी वह तुम्हारा कोई अपना ही है! .. ज़िक्र आज शायद उसका है भी और नहीं भी, यह वक़्त उसका ना होकर भी है यहीं, और मेरा चाह कर भी है नहीं। .. बस यहीं डर सा है, कुछ ज़्यादा सुलझने में, एक डर सा है तुम्हारी बातों में उलझने में। जिनमें उलझ कर मैं तुझ में कहीं खो जाता हूं, पर शायद तुम्हारे खयालों में नहीं!" .. "एक डर सा है कुछ ज़्यादा सुलझने में, एक डर सा है खामोशी के साथ चलने में, जो अक्सर बतियाती है उसकी खामोशी में भी याद आती है, जैसे वो भी हो मेरा ही कोई अपना। .. ज़िक्र उसका है ज़रूर, पर वक़्त हमारा है कभी नही याद उसकी है मेरी ज़रूर, बंदिशों में उलझी ज़िन्दगी तेरी नहीं। .. बस यहीं डर है कुछ ज़्यादा उलझने में, एक डर सा है खामोशी के साथ चलने में, जिन्हे पहचान कर मैं रुक तो जाती हूं, पर तुम्हें सुनाने की हिम्मत नहीं जो...